Sunday, May 29, 2011

किधर जाता है सांसद निधि?


यह सूचना अब बहुत हैरान नहीं करती कि सांसद निधि के इस्तेमाल के प्रति हमारे ज्यादातर संसद सदस्य उदासीन हैं। मास फॉर अवेयरनेस नाम की गैरसरकारी संस्था की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, 15वीं लोकसभा में 2010-11 के दौरान आधे से अधिक सांसदों ने ढंग से इस निधि का इस्तेमाल नहीं किया। जबकि 20 सांसदों ने तो इस अवधि में एक धेला भी खर्च नहीं किया! यह कोई नई बात नहीं। सांसदों के दबाव पर 1993-94 में जब इस निधि की शुरुआत हुई, तो इसके पीछे स्थानीय विकास कार्यों के जरिये अपना वोट बैंक मजबूत करने का ही इरादा था।

जबकि सांसद निधि अपने मूल रूप में लोकतंत्र के मानकों के ही विपरीत है ः सांसदों का काम कानून बनाना और नीतियां तय करना है, उन पर अमल तो नौकरशाही का कर्तव्य है। लेकिन सांसद निधि के जरिये सड़केंआदि बनवाकर हमारे जनप्रतिनिधि वस्तुतः नौकरशाही के काम में ही हस्तक्षेप करते आ रहे हैं। यह भी अद्भुत विरोधाभास है कि एक ओर सांसद निधि बढ़ती गई, दूसरी तरफ इसके प्रति सांसदों का रुझान घटता गया। सांसद निधि खर्च न करने की कई वजहें हैं। ज्यादातर सांसदों के पास न तो समय होता है और न ही अपने क्षेत्र के बारे में पूरी जानकारी। अनेक सांसदों को बाद के दिनों में यह निधि परेशानी लगने लगी।

उनका तर्क है कि एक जगह विकास कार्य कराओ, तो दूसरे इलाके के लोग नाराज हो जाते हैं। चूंकि सांसद निधि खर्च करने के पीछे अपनी छवि चमकाने की मंशा ज्यादा है, स्थानीय विकास की सदिच्छा कम, इसलिए ज्यादातर राज्यसभा सांसद तो इसे खर्च करने के बारे में सोचते भी नहीं, क्योंकि उनके लिए चुनाव में खड़े होने की बाध्यता नहीं है। सवाल यह है कि जब आधे सांसद इसके प्रति उदासीन हैं, तो इसे जारी रखने का क्या औचित्य है। जब इसमें भी भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद की शिकायतें आम हैं, तो इसे खत्म ही क्यों न कर दिया जाए? कैग ने अपनी रिपोर्टों में बताया है कि अनेक राज्यों में इस निधि का बेजा इस्तेमाल होता है।

प्रशासनिक सुधार आयोग सांसद-विधायक निधि खत्म करने की सिफारिश कर ही चुका है। राष्ट्रीय सलाहकार समिति भी इसे खत्म कर इसका पैसा राज्य सरकारों को विकास कार्यों के लिए देने की बात कह चुकी है। इन्हीं तर्कों के आधार बिहार में नीतीश सरकार ने विधायक निधि खत्म करने का साहसी फैसला किया। पर उसका अनुकरण तो दूर, उलटे राशि बढ़ाने की जब-तब मांग होती है। सांसद निधि बढ़ाकर अब सालाना पांच करोड़ रुपये कर दी गई है।अपने हित में दलीय झगड़े छोड़ एकजुट होने वाले सांसदों से यह उम्मीद भी नहीं की जा सकती कि वे खुद सांसद निधि को खत्म करेंगे।

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