अन्नागीरी का मामला भी चार दिन की चांदनी वाला ही निकला । हालांकि हम यह नहीं कह रहे कि अन्नागीरी एकदम से फ्लॉप गई। चलने को तो वह चलती भी रहेगी। पर शुरू में वह जोर-शोर से चली, फिर धीरे-धीरे मंथर गति पर आ गई। जबकि उम्मीद यह की जा रही थी कि अब गांधीगीरी के दिन खत्म हुए और अन्नागीरी का टैम शुरू हो गया। लेकिन अन्नागीरी तो अन्नागीरी ही रहेगी, वह गांधीगीरी का अपडेट नहीं हो सकती।
इस पर अन्ना के भक्तजन नाराज होकर पूछते हैं कि क्या अन्ना किसी मामले में गांधी से घटकर हैं।
वही गांव में रहना, वही खादी पहनना, वही बड़े-बड़ों के बीच भी अपनी सादगी से चमकना। यहां तक कि उपवास का हथियार भी वही। तो क्या अन्ना इसलिए नहीं चलेंगे कि वह गलत टैम में आ पड़े गांधी हैं? नहीं, वह तो गांधी और शिवाजी को जोड़ते हैं और गांधी को तथा गांधी की अहिंसा को भी, पुराने जमाने की सजाओं से जोड़कर नए जमाने में अपडेट करते हैं। तो क्या इसलिए कि अन्ना आम आदमी के नहीं, बल्कि इंटरनेट-फेसबुक-ट्विटर पीढ़ी वालों के गांधी हैं? फिर क्या इसलिए कि अन्ना खुद पूंजीपति न सही, करोड़पतियों से घिरे हैं। पांच के पैनल में तीन करोड़पति! नहीं, नहीं, नहीं!
अन्नागीरी न चलने का वही कारण है, जो सचिन के भारत रत्न न बन सकने का कारण है। इसे पलटकर इस तरह भी कह सकते हैं कि गांधीगीरी आज भी चलती है, तो इसीलिए कि गोडसे के कुकृत्य ने गांधी को असमय ही हमसे छीन लिया था। और आज हाल यह है कि परम भ्रष्ट लोग भी अन्ना के साथ मंच शेयर करते नजर आते हैं। जाहिर है, आज के दौर में गोडसे बनने के बजाय छिपा हुआ बेईमान बनकर रहना ज्यादा आसान है। फिर अन्ना को गांधी का दरजा भी नहीं मिल पाया है। वह भ्रष्टाचार शब्द मुंह पर लाते हैं, तो तीन-तीन दिशाओं से चुनौती आती है-उत्तर प्रदेश में कैंपेन चलाकर दिखाओ तो जानें? और चौथी दिशा से? चौथी दिशा से धमकी भरी शिकायत आती है, मेरे यहां ही क्यों, येदियुरप्पा के यहां क्यों नहीं, शीला बहन के यहां क्यों नहीं, करुणानिधि के यहां क्यों नहीं?
वैसे अन्ना ने भी कोई कच्ची गोलियां नहीं खेली हैं। उन्होंने पहले ही कह दिया-ओनली भ्रष्टाचार, नो राजनीति। पर ‘नो राजनीति’ का मैदान तो राजनीति से भी ज्यादा ठसाठस निकला। पॉलिटिकल न सही, पार्टियां तो वहां भी भरमार हैं। अन्ना के घुसते ही धक्का-मुक्की शुरू हो गई है। अब हर रोज न बंटने की अपीलें करनी पड़ रही हैं। बताइए, भला कैसे चलेगी अन्नागीरी?
इस पर अन्ना के भक्तजन नाराज होकर पूछते हैं कि क्या अन्ना किसी मामले में गांधी से घटकर हैं।
वही गांव में रहना, वही खादी पहनना, वही बड़े-बड़ों के बीच भी अपनी सादगी से चमकना। यहां तक कि उपवास का हथियार भी वही। तो क्या अन्ना इसलिए नहीं चलेंगे कि वह गलत टैम में आ पड़े गांधी हैं? नहीं, वह तो गांधी और शिवाजी को जोड़ते हैं और गांधी को तथा गांधी की अहिंसा को भी, पुराने जमाने की सजाओं से जोड़कर नए जमाने में अपडेट करते हैं। तो क्या इसलिए कि अन्ना आम आदमी के नहीं, बल्कि इंटरनेट-फेसबुक-ट्विटर पीढ़ी वालों के गांधी हैं? फिर क्या इसलिए कि अन्ना खुद पूंजीपति न सही, करोड़पतियों से घिरे हैं। पांच के पैनल में तीन करोड़पति! नहीं, नहीं, नहीं!
अन्नागीरी न चलने का वही कारण है, जो सचिन के भारत रत्न न बन सकने का कारण है। इसे पलटकर इस तरह भी कह सकते हैं कि गांधीगीरी आज भी चलती है, तो इसीलिए कि गोडसे के कुकृत्य ने गांधी को असमय ही हमसे छीन लिया था। और आज हाल यह है कि परम भ्रष्ट लोग भी अन्ना के साथ मंच शेयर करते नजर आते हैं। जाहिर है, आज के दौर में गोडसे बनने के बजाय छिपा हुआ बेईमान बनकर रहना ज्यादा आसान है। फिर अन्ना को गांधी का दरजा भी नहीं मिल पाया है। वह भ्रष्टाचार शब्द मुंह पर लाते हैं, तो तीन-तीन दिशाओं से चुनौती आती है-उत्तर प्रदेश में कैंपेन चलाकर दिखाओ तो जानें? और चौथी दिशा से? चौथी दिशा से धमकी भरी शिकायत आती है, मेरे यहां ही क्यों, येदियुरप्पा के यहां क्यों नहीं, शीला बहन के यहां क्यों नहीं, करुणानिधि के यहां क्यों नहीं?
वैसे अन्ना ने भी कोई कच्ची गोलियां नहीं खेली हैं। उन्होंने पहले ही कह दिया-ओनली भ्रष्टाचार, नो राजनीति। पर ‘नो राजनीति’ का मैदान तो राजनीति से भी ज्यादा ठसाठस निकला। पॉलिटिकल न सही, पार्टियां तो वहां भी भरमार हैं। अन्ना के घुसते ही धक्का-मुक्की शुरू हो गई है। अब हर रोज न बंटने की अपीलें करनी पड़ रही हैं। बताइए, भला कैसे चलेगी अन्नागीरी?